15 दिन पहले हुए नवोदय विद्यालय में एडमिशन के बाद 325 बच्चों को अभिभावक ले गए वापस
कोटाबाग स्थित राजीव गांधी नवोदय विद्यालय में एक पांचवीं कक्षा के बच्चे ने जब बिजली के काम में लगे श्रमिकों से कहा, “मुझे पापा से बात करनी है। मैं पूरे स्कूल में अकेला रह गया हूं। अब रात में कैसे मैं यहां रह पाऊंगा?” तो ये सुनकर बिजली कर्मियों को उसकी मासूमियत पर तरस आ गया। बच्चे की भावुक अपील के बाद श्रमिकों ने उसके पिता को फोन मिलाया। पिता खुशाल सिंह ने जब यह सुना कि उनका बेटा पूरे स्कूल में अकेला रह गया है, तो वह दौड़ते हुए स्कूल पहुंचे। वहां पहुँचने पर उन्होंने देखा कि 325 बच्चों वाले इस विद्यालय में अब सिर्फ उनका ही बच्चा मौजूद था।
विद्यालय की ये हालत देखकर खुशाल सिंह का दिल बैठ गया। उनके बच्चे के चेहरे पर डर और असहायता साफ झलक रही थी, क्योंकि स्कूल के सभी अन्य बच्चे अपने अभिभावकों के साथ घर लौट चुके थे। स्कूल की यह दुर्दशा वर्षों से चली आ रही थी, लेकिन न तो किसी जनप्रतिनिधि ने ध्यान दिया और न ही अधिकारियों ने कभी निरीक्षण की ज़रूरत समझी।
स्कूल में “शिक्षा” नहीं, “अव्यवस्था” की शिक्षा
15 दिन पहले ही खुशाल सिंह ने बड़े अरमानों से अपने बच्चे का प्रवेश नवोदय विद्यालय में करवाया था, यह सोचकर कि यहां उसकी अच्छी पढ़ाई होगी। लेकिन सच तो यह था कि यह स्कूल “पढ़ाई” के नाम पर अव्यवस्था और अनदेखी का गढ़ बन चुका था। छात्रावास में गंदगी का अंबार था, बाथरूम और शौचालय महीनों से साफ नहीं किए गए थे, और भोजन की गुणवत्ता ऐसी कि खाने में कभी नमक ज्यादा, तो कभी मिर्च।
“नमक-मिर्च की पढ़ाई” के साथ-साथ, यहां बिजली और पानी की व्यवस्थाएं भी ठीक से नहीं थीं। नतीजा यह हुआ कि सभी अभिभावक अपने बच्चों को एक-एक करके घर ले गए, और खुशाल सिंह का बच्चा ही अकेला वहां रह गया।
अधिकारियों की “मूक” भूमिका
अव्यवस्थाओं के चलते पूरा स्कूल खाली हो गया, लेकिन प्रबंधन समिति की अध्यक्ष डीएम और अन्य अधिकारियों को यह सब कुछ दिखाई नहीं दिया। अभिभावकों का आरोप है कि प्रशासन ने इस मुद्दे को गंभीरता से नहीं लिया, और यही वजह है कि मामला इस कदर बिगड़ गया।
पदों की रिक्तता का आलम यह था कि प्रधानाचार्य का पद वर्षों से खाली पड़ा था, जबकि जिम्मेदारी उपखंड शिक्षा अधिकारी के सिर पर डाल दी गई थी। शिक्षकों से लेकर सहायक स्टाफ तक की कमी के कारण विद्यालय की व्यवस्थाएं चरमरा चुकी थीं।
शिक्षकों की “बाहर की दुनिया”
अभिभावकों की एक और शिकायत थी कि अधिकांश शिक्षक विद्यालय परिसर में नहीं रहते, बल्कि दूसरे शहरों से आते हैं। विद्यालय में व्यवस्था बनाए रखने का यह तरीका शायद सबसे अनोखा है, जहां शिक्षक पढ़ाई के बजाय अपनी सुविधाओं को प्राथमिकता देते हैं।