Lansdowne कहलाएगा जसवंत गढ़
यदि रक्षा मंत्रालय से हरी झंडी मिल जाती है तो 136 वर्षों बाद एक बाद फिर कालोडांडा (वर्तमान में लैंसडौन) को नया नाम मिल जाएगा। कैंट बोर्ड ने लैंसडौन का नाम बदल कर जसवंत गढ़ किए जाने संबंधी प्रस्ताव सेना मुख्यालय में भेजा है। जसवंतगढ़ नाम उस महावीर चक्र विजेता वीर सेनानी जसवंत सिंह के नाम पर रखा जा रहा है, जिन्होंने 1962 के भारत-चीन युद्ध में अकेले ही अरूणाचल प्रदेश की नूरानांग चौकी पर तीन सौ से अधिक चीनी सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया।
1887 में मिला था लैंसडौन नाम
पांच मई 1887 में जब कालोडांडा को तत्कालीन वायसराय ऑफ इंडिया लॉर्ड लैंसडाउन के नाम पर लैंसडौन नाम मिला, उस वक्त शायद ही कभी यह सोचा गया होगा कि भविष्य में भी लैंसडौन का नाम बदलने की कवायद की जाएगी। 136 वर्षों तक जिस लैंसडौन ने जहां गढ़वाल राइफल्स रेजीमेंटल सेंटर के साथ ही पर्यटन के क्षेत्र में देश-विदेश में अपनी पहचान बनाई, अब उस लैंसडौन को नई पहचान मिलने जा रही है।
बीती 20 जून को कैंट बोर्ड ने सेना मुख्यालय को भेजे एक प्रस्ताव में लैंसडौन की नाम बदल कर जसवंत गढ़ करने की सिफारिश की है। दरअसल, महावीर चक्र विजेता जसवंत सिंह गढ़वाल राइफल्स रेजीमेंट में बतौर राइफलमैन भर्ती हुए थे।
उनके अदम्य साहस व वीरता को देखते हुए भारतीय सेना ने नूरानांग चैक पोस्ट को जसवंत गढ़ नाम देते हुए वहां जसवंत सिंह के नाम से मंदिर बनाया, जहां उनसे जुड़ी चीजों को सुरक्षित रखा गया। साथ ही सेना ने मरणोपरांत भी उन्हें सेवा में माना और अन्य सैनिकों के भांति ही उन्हें तमाम सुविधाएं व भत्ते दिए।
कालौडांडा से लैंसडौन तक का सफर
- 1879-80 में द्वितीय आंग्ल-अफगान युद्ध में विलक्षण बहादुरी का परिचय देने वाले गढ़वाली सैनिक लाट सूबेदार बलभद्र सिंह नेगी की वीरता के अंग्रेज कायल हो गए।
- बलभद्र सिंह नेगी की वीरता से प्रभावित होकर प्रधान सेनापति राबर्टस ने तत्कालीन वायसराय लार्ड डफरिन को पत्र लिख गढ़वाल राइफल्स बटालियन की स्थापना का सुझाव दिया।
- 05 मई 1887 को अल्मोड़ा में गढ़वाल राइफल्स की स्थापना हुई, जिसे बाद में कालोडांडा में शिफ्ट किया गया।
- चार नवंबर 1887 को कालोडांडा का नाम बदलकर तत्कालीन वायसराय ऑफ इंडिया लॉर्ड लैंसडाउन के नाम पर लैंसडौन नाम मिला।
- एक अक्टूबर 1921 को लैंसडौन में गढ़वाल राइफल्स रेजीमेंटल सेंटर की स्थापना हुई और आज भी यह सेंटर लैंसडौन की पहचान है।
- इसी गढ़वाल राइफल्स रेजीमेंट के वीर सेनानी थे जसवंत सिंह रावत, जिनके नाम पर अब लैंसडौन का नाम रखने की कवायद जारी है।
‘हीरो आफ द नेफा’ राइफलमैन जसवंत सिंह
‘जज्बा मिटता नहीं, शरीर के मिट जाने से, अगर अहसास ही जिंदगी है, तो मैं आज भी जिंदा हूं’। राइफलमैन जसवंत सिंह रावत के नाम को चरितार्थ करती यह पंक्तियां आज भी जवानों के हौंसला बढ़ाती हैं। 19 अगस्त 1941 को प्रखंड वीरोंखाल के अंतर्गत ग्राम बाडियूं में जन्म जसवंत सिंह रावत गढ़वाल राइफल्स रेजीमेंट में राइफलमैन के पद पर थे और उनकी तैनाती अरूणाचल प्रदेश के नूरानांग पोस्ट थी।
1962 को चीनी सेना ने इस चैक पोस्ट पर हमला बोल दिया। राइफलमैन जसवंत सिंह को छोड़ अन्य तमाम सैनिक शहीद हो गए। लेकिन, जसवंत सिंह ने हिम्मत नहीं हारी और अकेले ही मोर्चा संभाल दिया। जसवंत सिंह ने अपनी युद्ध की रणनीति बनाई और अलग-अलग दिशाओं में जाकर चीनी सैनिकों पर फायरिंग करते रहे। चीनी सैनिकों को भी यह लगने लगा कि पोस्ट में कई भारतीय सैनिक मोर्चा संभाले हैं।
72 घंटे तक जसवंत सिंह ने अकेले मोर्चा संभाले रखा। अंत में जब उन्हें पोस्ट हाथ से जाती नजर आई तो उन्होंने स्वयं को गोली मार दी और वीरगति को प्राप्त हुए। जिस पोस्ट में जसवंत सिंह शहीद हुए, सेना ने उस पोस्ट को जसवंत गढ़ नाम दिया और इस वीर सेनानी की याद में एक मंदिर का निर्माण करवाया।
आज भी देश की निगरानी करती है आत्मा
मान्यता है कि जसवंत सिंह की आत्मा आज भी देश की निगरानी करती है। जिस पोस्ट में राइफलमैन जसवंत सिंह शहीद हुए थे, वहां आज भी उनके लिए प्रतिदिन खाने की थाली व बिस्तर लगाया जाता है। भले ही जसवंत सिंह को शहीद हुए आज 61 वर्ष गुजर गए हों। लेकिन, सैनिकों के लिए वे भगवान से कम नही है।
सेना में उन्हें हीरो आफ द नेफा के नाम से जाना जाता है। नूरानांग के जसवंत गढ़ में शहीद जसवंत सिंह की स्मृति में बनाए गए मंदिर के आगे से हर सैनिक सैल्यूट करके ही आगे बढ़ता है।