भगवान शिव की भूमि देवभूमि उत्तराखंड

भगवान शिव की भूमि देवभूमि उत्तराखंड
भगवान शिव की भूमि है देवभूमि उत्तराखंड, यहां विविध रूपों में अराध्य हैं भोले

देवभूमि उत्तराखंड को शिव की भूमि कहा गया है। यहां आज भी शिव विभिन्न रूपों में उत्तराखंड के आराध्य देव हैं। यहां कैलाश में शिव का वास और कनखल में ससुराल है।

देहरादून, देवभूमि उत्तराखंड को शिव की भूमि कहा गया है। यहीं कैलास पर शिव का वास है और यहीं कनखल (हरिद्वार) व हिमालय में ससुराल। आद्य शंकराचार्य के उत्तराखंड आने से पूर्व यहां शैव मत का ही बोलबाला रहा है और सभी लोग भगवान शिव के उपासक थे। आज भी शिव विभिन्न रूपों में उत्तराखंड के आराध्य देव हैं।

भगवान शिव यहां पंचकेदार के रूप में भी विराजमान हैं और महासू, जागेश्वर, बागेश्वर आदि रूपों में भी। यहीं उत्तरकाशी स्थित गंगोत्री धाम में भगवान ने मां गंगा के प्रचंड वेग को थामने के लिए उन्हें अपनी जटाओं में धारण किया था। सबसे महत्वपूर्ण यह कि कांवड़ यात्रा का केंद्र भी उत्तराखंड ही है। देशभर के कांवडिय़े यहीं हरिद्वार, गंगोत्री, गोमुख आदि स्थानों से गंगाजल लेकर सावन शिवरात्रि पर भगवान शिव का अभिषेक करते हैं।

मान्यता है कि से सृष्टि के पालक भगवान विष्णु सावन शुरू होने से पूर्व आषाढ़ शुक्ल एकादशी (प्रबोधिनी एकादशी) को संसार की समस्त जिम्मेदारियों से मुक्त होकर विश्राम के लिए पाताल लोक चले जाते हैं। यह चातुर्मास की शुरुआत भी है और तब भगवान विष्णु की गैरमौजूदगी में सृष्टि का संपूर्ण कार्यभार भगवान शिव ही देखते हैं।

इस कालखंड में सिर्फ भगवान शिव की ही पूजा होती है, इसलिए सावन उन्हें अत्यंत प्रिय है। पुराणों में उल्लेख है कि सावन में माता पार्वती ने शिव की घोर तपस्या की थी और भगवान ने उन्हें दर्शन भी इसी माह में दिए। तब से भक्तों का विश्वास है कि इस माह में जलाभिषेक से भगवान जल्द प्रसन्न हो जाते हैं।

पौराणिक कथाओं में यह भी वर्णित है कि समुद्र मंथन के दौरान जो हलाहल (कालकूट) विष निकला था, उसे भगवान शिव ने कंठ में धारण कर सृष्टि की रक्षा की। लेकिन, विषपान से महादेव का कंठ नीलवर्ण हो गया और वह ‘नीलकंठ’ कहलाए। विष के प्रभाव को कम करने के लिए सभी देवी-देवताओं ने कैलास में उन्हें जल अर्पित किया। तब से सावन में शिवलिंग पर जलाभिषेक की परंपरा चली आ रही है।

इस बार एक साथ पड़ रहे सौर व चंद्र सावन

उत्तराखंड में सौर व चंद्रमास के हिसाब से सावन मनाने की परंपरा है। हरिद्वार के अलावा देहरादून व तराई के कुछ हिस्से को छोड़ शेष पर्वतीय क्षेत्र में सौर सावन ही मनाया जाता है।

सौरमास की शुरुआत संक्रांति और चंद्रमास की पूर्णिमा से होती है। इसलिए दोनों के बीच एक सप्ताह तक का अंतर आ जाता है। यह पहला मौका है, जब सौर व चंद्र मास की शुरुआत एक ही दिन 17 जुलाई को हो रही है। ज्योतिषाचार्य स्वामी दिव्येश्वरानंद बताते हैं कि 17 जुलाई को ब्रह्ममुहूर्त में 4.24 बजे सूर्य मिथुन लग्न में कर्क राशि में प्रवेश कर रहा है।

दरअसल सूर्य हर महीने अपना स्थान बदल कर एक राशि से दूसरे राशि में प्रवेश करता है। सूर्य के इस राशि परिवर्तन करने की प्रक्रिया को ही संक्रांति कहते हैं। विशेष यह कि 17 जुलाई को ही पूर्णिमा भी पड़ रही है। ऐसा दुर्लभ संयोग 32 वर्ष बाद बन रहा है। इसलिए इस बार सावन सोमवार व्रत की शुरुआत अलग-अलग दिनों से नहीं होगी। यानी सौर व चंद्रमास के अनुसार 22 जुलाई को ही सावन का पहला सोमवार होगा।

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