आधुनिकता की दौड़ में खोती जा रही है उत्तराखंड की पर्वतीय पहचान, आंदोलनकारियों की चिंता

देहरादून: उत्तर प्रदेश से अलग होकर जब उत्तराखंड राज्य का गठन हुआ था, तब लोगों ने उम्मीद की थी कि यह राज्य एक विशिष्ट पर्वतीय पहचान के साथ आगे बढ़ेगा — अपनी संस्कृति, परंपराओं और लोक धरोहरों को संजोते हुए। हिमाचल प्रदेश को उस समय संतुलित और स्थानीय जड़ों से जुड़े विकास मॉडल के रूप में देखा गया था। लेकिन आज, आधुनिकता की तेज़ रफ्तार में उत्तराखंड का विकास मैदानी स्वरूप की ओर झुकता दिख रहा है, जिससे राज्य की मूल पहचान के खोने का खतरा बढ़ गया है।
राज्य आंदोलन से जुड़े कार्यकर्ताओं का मानना है कि उत्तराखंड राज्य की मांग केवल प्रशासनिक अलगाव के लिए नहीं थी, बल्कि स्थानीय संस्कृति, परंपराओं और संसाधनों की रक्षा के लिए थी। अपनी धरोहर न्यास के अध्यक्ष विजय भट्ट ने कहा, “हम आधुनिकता की अंधी दौड़ में अपनी जड़ों से दूर हो रहे हैं। हमारी लकड़ी की कला, पारंपरिक वाद्ययंत्र और लोक प्रतीक आज भी संरक्षण की प्रतीक्षा कर रहे हैं।”
सामाजिक कार्यकर्ता प्रदीप कुकरेती ने कहा कि राज्य बनने का मकसद भाषा, परंपरा और सांस्कृतिक धरोहर की रक्षा करना था, जो उत्तर प्रदेश के शासनकाल में उपेक्षित थी। “विकास हुआ है, लेकिन वह हमारी पर्वतीय आवश्यकताओं के अनुरूप संतुलित नहीं है। फिर भी यह सकारात्मक है कि अब कई लोग स्थानीय संस्कृति को बचाने के प्रयासों में जुटे हैं,” उन्होंने कहा।
संयुक्त संघर्ष समिति की केंद्रीय तथ्यात्मक समिति के संयोजक सुरेंद्र कुमार ने कहा कि राज्य के पास अब भी सतत विकास की स्पष्ट दिशा नहीं है। “हमारे संसाधन ही हमारी पहचान हैं, लेकिन असंतुलित दोहन से यह विरासत खतरे में है। अब समय आ गया है कि सब मिलकर उत्तराखंड को उसकी असली पहचान दें,” उन्होंने कहा।
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वरिष्ठ आंदोलनकारी चंद्रकला बिष्ट ने मुज़फ्फरनगर आंदोलन के दिनों को याद करते हुए कहा, “हमने सपना देखा था कि उत्तराखंड का विकास उसकी प्राकृतिक और सांस्कृतिक संपदा के अनुरूप होगा। परंतु आज यह विकास अव्यवस्थित और असंतुलित हो गया है। राज्य गठन की स्वर्ण जयंती तक हमें सुनिश्चित करना होगा कि हमारी कुर्बानियां सार्थक महसूस हों।”



