250 रुपये में शिक्षक? मजदूर से भी कम दिहाड़ी पर शिक्षकों की तलाश में उत्तराखंड सरकार, नौ साल से नहीं बढ़ा मानदेय

250 रुपये में शिक्षक? मजदूर से भी कम दिहाड़ी पर शिक्षकों की तलाश में उत्तराखंड सरकार, नौ साल से नहीं बढ़ा मानदेय

उत्तराखंड की उच्च शिक्षा व्यवस्था एक बार फिर कटघरे में है। प्रदेश में जहां दिहाड़ी मजदूरों को 500 रुपये तक की मजदूरी दी जाती है, वहीं नेट और पीएचडी जैसी उच्च योग्यताओं वाले शिक्षकों को महज 250 रुपये प्रति कक्षा या 15,000 रुपये मासिक मानदेय पर नियुक्त किया जा रहा है। यह स्थिति किसी निजी संस्थान की नहीं, बल्कि राज्य के राजकीय महाविद्यालयों की है।

कुमाऊं अंचल के सबसे बड़े एमबीपीजी कॉलेज के स्ववित्तपोषित बीएड विभाग ने हाल ही में विज्ञान और सामाजिक विज्ञान विषयों में दो अस्थायी शिक्षकों की भर्ती का विज्ञापन जारी किया है। पात्रता के तौर पर सहायक प्राध्यापक की शैक्षिक योग्यता मांगी गई है, लेकिन मानदेय मात्र 250 रुपये प्रति कक्षा तय किया गया है।

शिक्षा से बड़ा मजाक क्या होगा?

यह कोई अकेला मामला नहीं है। राज्य के अन्य 16 राजकीय महाविद्यालयों में संचालित स्ववित्तपोषित बीएड पाठ्यक्रमों की स्थिति भी कुछ ऐसी ही है। इन पाठ्यक्रमों में अस्थायी शिक्षकों के भरोसे शिक्षा व्यवस्था चल रही है, जिन्हें इतनी कम राशि में काम करना पड़ रहा है कि उनकी दैनिक आमदनी मजदूरों से भी कम बैठती है।

मानदेय बढ़ाने की फाइलें हर साल लौटती हैं खाली हाथ

स्ववित्तपोषित बीएड कोर्स की शुरुआत राज्य में 2008 के आसपास हुई थी। इसके बाद सिर्फ दो बार शिक्षकों का मानदेय थोड़ा बढ़ाया गया, लेकिन पिछले नौ वर्षों से एक पैसा भी नहीं बढ़ा। कॉलेज प्रशासन ने कई बार महंगाई और शिक्षा की गरिमा को देखते हुए मानदेय वृद्धि के प्रस्ताव शासन को भेजे, पर हर बार यह फाइलें सिर्फ चर्चा में रह गईं, निर्णय में नहीं बदल पाईं।

शासन का नियम, लेकिन बजट नहीं

सबसे बड़ी विडंबना यह है कि सरकार स्ववित्तपोषित कोर्सों के लिए कोई आर्थिक सहायता नहीं देती, लेकिन शिक्षकों की भर्ती, मानदेय और अन्य प्रक्रियाओं पर सारे नियम वही लागू होते हैं जो सरकारी अनुदानित कोर्सों पर लागू होते हैं। यहां तक कि जिन कॉलेजों के पास खुद का अच्छा बजट है, वे भी इन नियमों की वजह से शिक्षकों का मानदेय नहीं बढ़ा पा रहे।

14 साल पुराना आदेश आज भी लागू

वर्ष 2011 में शासन ने स्ववित्तपोषित पाठ्यक्रमों में शिक्षकों के मानदेय को लेकर आदेश जारी किया था, जिसमें 250 रुपये प्रति वादन (कक्षा) निर्धारित किया गया था। हैरानी की बात यह है कि 14 वर्ष बाद भी यही दर लागू है। वर्तमान में विभागाध्यक्ष को 36,750 रुपये, विषय विशेषज्ञ को 26,250 रुपये, शारीरिक प्रवक्ता को 15,000 रुपये और पुस्तकालय प्रभारी को 12,600 रुपये देने का प्रावधान है। लेकिन अगर कोई पद खाली है तो उसके लिए अस्थायी नियुक्ति सिर्फ 250 रुपये प्रति कक्षा पर की जा सकती है।

भर्ती बंद, अस्थायी व्यवस्था से काम

उच्च शिक्षा विभाग ने आखिरी बार 2014 और 2016 में स्थायी भर्ती प्रक्रिया चलाई थी। उसके बाद से कोई नियमित नियुक्ति नहीं हुई है। ऐसे में वर्षों से खाली पद अस्थायी व्यवस्था से भरे जा रहे हैं। इससे न सिर्फ शिक्षा की गुणवत्ता प्रभावित हो रही है, बल्कि शिक्षकों में भी भारी असंतोष है।

क्या शिक्षा का मूल्य मजदूरी से भी कम हो गया है?

एक तरफ सरकार गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की बात करती है, दूसरी तरफ पीएचडी धारकों को मजदूर से भी कम मानदेय देने की स्थिति सामने आती है। यह न केवल शिक्षा की गरिमा के खिलाफ है, बल्कि राज्य की युवा पीढ़ी के भविष्य के साथ भी अन्याय है।

अगर अब भी इस मुद्दे पर गंभीरता नहीं दिखाई गई, तो आने वाले समय में न तो अच्छे शिक्षक इस पेशे में टिक पाएंगे और न ही शिक्षा व्यवस्था में सुधार की कोई उम्मीद बचेगी।

Saurabh Negi

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